बहन जी अब रास्ता नापिए, दलितों को नीली नहीं, केसरिया छतरी भा गई है


- मायावती को अब सवर्णों की राजनीति करनी चाहिए। दलित तो उनकी मुठ्ठी खुलते ही राख की तरह झर गए।

जयराम शुक्ल
भोपाल के लाल परेड मैदान में बसपा सुप्रीमो की सभा का लाइव कवरेज़ करते हुए एक न्यूज चैनल ने फोनो पर मुझसे पूछा - बहन मायावती का राजनीतिक भविष्य कैसे देखते ह़ैं ? मेरे मुंह से निकल गया कि बहनजी को अब सवर्णों की राजनीति करनी चाहिए। दलित तो उनकी मुठ्ठी खुलते ही राख की तरह झर गए। वे अब उनके बाड़े से निकलकर दूसरे पाले म़े जा बैठे हैं। ले दे के बचे ह़ै़ सवर्ण जिनकी बात किसी दल में कोई करनेवाला नहीं है।सो सबसे अच्छा मौका है कि वे इनके बारे में बात करना शुरू कर दें।आखिर हाथी तो गणेश जी हुए न।

लालपरेड की सभा में नीलापन वैसा नहीं रहा जैसा कि नब्बे के दशक में उमडते-घुमड़ते हम पत्रकारों ने देखा है। रेवांचल से लौटते हुए बसपा के कई नेता एसी डिब्बे म़े मिल गए। सामान्य डिब्बे बिलकुल शांत थे। रैली में शामिल होने गए प्रायः टिकटार्थी ही दिखे जो संभवतः समर्थकों के साथ बहनजी को शकल दिखाने की गरज से गये होंगे। बसपा मेंं भी अब कांग्रेस की तरह नेता भर बचे हैं जिनकी पूरी कवायद टिकट तक रहती है। कभी यही रेवांचल ऐसे मौकों पर ठसाठस जाती थी। लोग इनके रेलमपेल के चलते टिकटें कैंसिल करवा लिया करते थे।

रीवा में बहुजन समाज पार्टी की गर्भनाल गड़ी है। कांशीराम कभी यहाँ के दलितों के भगवान होते थे। उनकी मंशा और हुकुम को पूरा करने के लिए ये कुछ भी करने को तैयार रहते थे। कांशीराम के लिए रीवा दलित राजनीति के लिए वैसे ही एक प्रयोगशाला थी जैसे कि लोहिया के समाजवाद के लिए। 1988 म़ें रीवा म़ें कांशीराम की सभा थी, जिसमें ऐसी नीली आँधी उमड़ी कि लोग चकित रह गए।

तब मैं जनसत्ता के लिए भी रिपोर्टिग करता था। मेरी रिपोर्ट दूसरे दिन के जनसत्ता की बैनर खबर थी शीर्षक था- कांग्रेस के लिए कैंसर साबित होंगे कांशीराम..। उन दिनों मीडिया कांशीराम से परहेज़ करता था और बसपा को राजनीतिक विश्लेषक पार्टी तक मानने को तैयार नहीं थे। मैं आज भी शुक्रगुज़ार हूँ भीम सिंह का जिन्होंने मेरा परिचय छुपाकर कांशीराम से मिलवाया था।

संघ के स्वयंसेवक व गायत्री परिवार के प्रवचनकर्ता भीम सिंह उन्हीं की ही खोज थे, जो 1991में रीवा से बसपा के सांसद बने। जनसत्ता का शीर्षक एक तरह से अकाट्य भविष्यवाणी ही सबित हुआ देश के पैमाने पर। बसपा का मध्यप्रदेश म़े फैलाव रीवा से ही शुरू हुआ।1989 के चुनाव में यहां बसपा ने विमला सोंधिया को कांग्रेस की महारानी प्रवीण कुमारी के मुकाबले खड़ा किया, तीसरे थे जनता दल के यमुनाशास्त्री। कभी लोहिया ने रानी बनाम मेहतरानी की बहस शुरू की संयोग देखिए कि उनकी विचारभूमि पर कांशीराम ने प्रेक्टिकल किया। यद्यपि विमला जी कहार जाति से थीं लेकिन सामंती ठसक वाले रीमाराज्य म़े बाभन ठाकुर के अलावा दीगर लोगों को कमोबेश उसी श्रेणी का माना जाता था।
समाजवादी चेतना के बावजूद इन दो जातियों के अलावा तीसरे के नेतृत्व की बात ही नहीं सोची जाती थी। वो कांशीराम ही थे जिन्होंने पिछड़े व दलितों को वोटर से नेता के रूप में बदला। 89 के चुनाव म़ें वीपी सिंह का बोफोर्स अहम मुद्दा था और ऊपर से जननायक शास्त्री जी उम्मीदवार, इसलिए जीते वही।

कमाल की बात यह हुई कि रीवा जिले की सभी विधानसभा सीटों से बसपा की विमलाजी कांग्रेस की महारानी से आगे रही़ं। भारतीय राजनीति के उलटा पलट का यह सबसे भीषण संकेत था जिसके अगले शिकार दो पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह व वीरेंद्र सखलेचा बने जिन्हें सतना के एक नौजवान सुखलाल कुशवाहा ने बसपा की टिकठ से परास्त कर दिया।
कांशीराम प्रतीकों की राजनीति करते थे। उस संक्षिप्त मुलाकात में उनकी बातचीत से जो उभरकर आया वो जातीय स्वाभिमान था। वे बोले- ये विकास तो कर ल़ेंगे लेकिन पहले खुद को पहचान तो लें -वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा नहीं चलेगा.. का नारा रीवा से ही उछला था। कांशीराम रीवा की पड़ोसी लोकसभा सीट फूलपुर से इसलिये लड़े क्योंकि यहाँ से कभी प्रधानमंत्री लड़ा करते थे।

मायावती ने उस स्वाभिमान को धनिकों के पास गिरवी कर दिया। बसपा की जमावट में जीवन खपाने वाले लोग ऐसा मानते हैं। जिस वर्ग ने सबसे ज्यादा शोषित-दमित किया उन्हीं को बहन जी ने सत्ता की चाभी सौंप दी।बसपा के झंडे की नीलिमा टिकट के लिए नीलाम होने लगी। जिन्होंने कांशीराम के सबकुछ छोड़ दिया उन्हें बहन जी ने भरे चौराहे में बेइज्जत कर अनाथ छोड़ दिया। विन्ध्य में ही बसपा का परचम लहराने वाले सुखलाल, भीमसिंह, विमला को निकाल बाहर किया।
बहन जी खुद ब्रांड, एम्बसडर, प्रोडक्ट, मैनेजर, सीईओ सब बन गईं। बाढ़ आती तो एकाएक है पर उतरती आहिस्ते आहिस्ते है। नीला सैलाब उतार पर है। बसपा के वोटर अपने ही उस नारे से सबकुछ समझ गए ह़ैं-राज तुम्हारा वोट हमारा नहीं चलेगा। लोकसभा चुनाव में हाथी ने इसीलिए अंडा दिया है।

लालपरेड मैदान म़े बहन सफाई दे रहीं थी कि हमने धन नहीं कमाया, टिकट नहीं बेचे। वे भाषण से ज्यादा आत्मलाप कर रही थीं। पर अब उनकी मुठ्ठी तो खुल ही चुकी है। सो राख झरने लगी। अंबेडकर के उनसे भी बडे़ भक्त मैदान पर आ गए। अपने ही सूबे को ले लीजिए, दलितों के हितों के खिलाफ है किसी माई के लाल की मजाल जो मुँह खोल सके।
बहन जी, अब रास्ता नापिए। यहां के दलितों को अब नीली नहीं, केसरिया छतरी भा गई है। आज अंबेडकर जी इनकी शोभायात्रा की पालकी पर हैं, कल हो सकता है साथ म़े कांशीराम रथपर विराजमान निकलें। इसलिये मैं कहता हूँ कि आज जिनका कोई घनीघोरी नहीं उन्हीं की मुड़धरिया बन जाइए। ये तो आप ही का नारा है न- हाथी नहीं गणेश हैं ,ब्रह्मा, विष्णु महेश ह़ैं।
महान दार्शनिक व देश के राष्ट्रपति रहे सर्वपल्ली राधाकृष्णन कह गए हैं-राजनीति भुजंग की भाँति कुटिल और तड़ित की तरह चंचल होती है।

बहन जी ! इस बात को नोट किया कि नहीं..?

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