बड़ा सवाल तो ये है साहेब कि बचेगा कौन! राहुल या कांग्रेस ?



ब्युरो रिपोर्ट कवरेज इण्डिया।

पहली बात जो साफ़ है वो यह कि कांग्रेस यह मानकर चल रही है कि वह स्थाई रूप से बिलकुल भी बुरी स्थिति में नहीं है. यह दो कारणों से समझा जा सकता है.

एक, केवल 34 महीने पहले कांग्रेस बहुमत से भारत पर राज कर रही थी. कांग्रेस का एक प्रधानमन्त्री पूरे दस साल के लिए देश की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा. 1970 में इंदिरा गांधी के बाद ऐसा पहली बार हो रहा था. इस तरह का समय जब ख़त्म होता है तब कांग्रेस का यह मानना लाज़मी है कि जनता उनकी ओर लौट आएगी.

दूसरा, परिवारवाद से ग्रसित पार्टियों में दरबारी कभी परिवार से ज़्यादा प्रसिद्ध नहीं हो पाते. उन्हें अपने सर्वेसर्वा को सच बताने का न कोई फ़ायदा होता है और न ही वे ज़मीनी काम करते हैं क्योंकि ऐसा करने का उन पर कोई दबाव नहीं होता. कांग्रेस के पास नेता की नहीं बल्कि एक स्थिर राजनीतिक और सामाजिक सोच की कमी है.

करिश्माई व्यक्तित्व वाले नेता हैं. वे दूसरों को बेहद प्रभावित करते हैं लेकिन इसके साथ ही वे ज़बर्दस्त संवाद स्थापित करने में भी माहिर हैं. उनकी बेहतरीन कला है किसी बात को बेहद सरल ढंग से रख लेना. मोदी भारत की जटिल समस्याओं को भी बेहद सरलता से प्रस्तुत करने की क्षमता रखते हैं.

जैसे कि वे कहेंगे कमज़ोर और डरपोक किस्म के नेतृत्व के कारण आतंकवाद बढ़ता है और वे अपनी बात वहीं छोड़ देंगे. उनकी इस बात का कोई दूसरा जवाब है ही नहीं.

राजनीतिक वादविवाद की कहानी मोदी लोगों को बेहद सरलता से समझा लेते हैं. नोटबंदी जैसी पॉलिसी जिसका हर भारतीय पर नकारात्मक असर पड़ा, उसे भी मोदी काले धन और आतंकवाद के खिलाफ वरदान के रूप में प्रचारित करने में सफल रहे.

पर ‘स्वतंत्रता सेनानी’ लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था लेकिन अब सुनने में नहीं आता. ये लोग ज़मीन पर कार्यकर्ताओं की तरह लड़ने वाले लोग नहीं बल्कि कांग्रेस द्वारा तैयार किए वो लोग थे जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े. 1930 में जन्मे ऐसे सेनानियों ने खुद को कांग्रेस के क़रीब समझकर नेहरू के लिए काम किया होगा और बाद में इंदिरा के लिए. 1980 तक आते आते ये कार्यकर्ता ग़ायब होता गया और अब लुप्त ही हो गया है.

कांग्रेस के पास हिंदुत्व या साम्यवाद की तरह कोई विचारधारा नहीं है, न ही मायावती या असद्दुदीन ओवैसी की तरह कोई सामाजिक ज़मीन है. बहुत कम भारतीयों के पास कांग्रेस को चुनने का अपना एक कारण है. इस सच को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को पैसा व समय ख़र्च कर अपनी एक ज़मीन तैयार करनी होगी जिस पर वो लोगों का भरोसा जीत सकें.

ये हमें कांग्रेस की चौथी समस्या पर लाता है, जो है संसाधन. चुनाव के लिए पैसा चाहिए और वो भी बहुतायत में. ये पैसा चुनावी राजनीति में दो तरफ से आता है. पार्टी फ़ंड इकट्ठा करती है, डोनेशन से या भ्रष्ट तरीक़ों से जिसे आगे बांटा जाता है. दूसरा है जब कैंडिडेट ख़ुद पैसा पार्टी में लाते हैं. मैं कोई रहस्य नहीं खोल रहा लेकिन एक विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी कम से कम 10 करोड़ रुपया ख़र्च होता है. संसदीय चुनाव का गणित इससे बहुत ऊपर है.

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