बैंकों में भूतपूर्व सैनिकों का भी होता है शोषण, लोक सचिवालय का आइडिया कैसा रहेगा


वरिष्ठ पत्रकार, रवीश कुमार।
मुझे नहीं पता था कि सरकारी बैंको में हमारे प्यारे भूतपूर्व सैनिक भी पीड़ित हैं। बैंकों ने उन्हें भी सता दिया है। अगर एक भूतपूर्व सैनिक आपको कहे कि बैंकों में हमें पाकिस्तानी नागरिक सा व्यवहार किया जाता है तो क्या मैं उनके पत्र को गोदी मीडिया के एंकरों के पास भेज दूं। जिस तरह से विरोध के स्वर को पाकिस्तानी स्वर के रूप में चिन्हित किया गया है, मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि एक सैनिक अपने साथ हो रहे शोषण को पाकिस्तानी नागरिक से जोड़ देगा। जबकि शोषण तो भारतीय नागरिक और भारतीय सैनिक का हो रहा है, बदनाम पाकिस्तान हो रहा है।

ख़ैर। सोचिए भाषा के इस खेल पर। बहरहाल मेरे पास भूतपूर्व सैनिकों के बहुत सारे पत्र आ रहे हैं जो बैंकों में क्लर्क और गार्ड के पद पर काम करते हैं। उनका सार पेश कर रहा हूं। हज़ारों मेसेज पढ़ा है। देश सेवा और सैनिक प्रेम को लेकर कितना फ्राड है हमारे देश में। एक भी ग़ैर सैनिक बैंकर ने इनकी व्यथा का ज़िक्र नहीं किया। सारा ख़ूनी खेल टीवी पर ही खेला जा रहा है सेना के नाम पर ताकि देशभक्ति की आड़ में मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैला सकें। सैनिक भी इसमें अपना उपयोग होने देते हैं जबकि वे मोर्चे पर साथ साथ गोली खाते हैं। अब आगे उनकी व्यथा देखिए।

सेना से जो लोग रिटायर होते हैं उन्हें बैंक क्लर्क के पद पर 14 फीसदी और गार्ड के लिए 24 फीसदी का आरक्षण मिलता है। एक फौजी ने लिखा है कि जब बैंकों को भीतर से देखा तब लगा कि हमारे और देश के साथ धोखा हो रहा है। मैनेजमेंट हम फौजियों को साधारण कर्मचारियों जैसा भी सलूक नहीं करते हैं। ऐसे सलूक करते हैं जैसे हम कोई पाकिस्तानी नागरिक हैं। जब तब फौजी बैंकर की पेमेंट आधी कर देते हैं। हज़ारों की संख्या में पूर्व सैनिक बैंकर ऐसे अनेक अत्याचारों के ख़िलाफ़ कोर्ट में लड़ रहे हैं। वायुसेना में काम कर चुके पंजाब नेशनल बैंक में क्लर्क एक भूतपूर्व सैनिक ने मुझे ईमेल भेजा है।

बैंकों के भीतर एक्स सर्विसमैन की अपनी ही अलग समस्या है। इनका कहना है कि एक दशक से ज़्यादा समय से अन्याय हो रहा है। बैंकों ने अपनी मर्ज़ी से पे फिक्स करना शुरू कर दिया है। 2007 से 2014 के बीच की सैलरी को दोबारा से फिक्स कर सैनिक बैंकरों से लाखों की रिकवरी निकाल दी गई है। इसके खिलाफ सैनिक बैंकर अदालत चले गए हैं। जिन्हें अदालत से स्टे नहीं मिला है उनकी मेहनत की कमाई पैसे वापस करने में चली गई है। इन सैनिकों को बैंक और सरकार से कोई उम्मीद नहीं है। यह भी बताया कि एक सर्कुलर निकला है जिसकी आड़ में हज़ारों भूतपूर्व सैनिकों की रक्षा पेंशन से महंगाई भत्ता काट लिया गया है। लाखों में रिकवरी निकाल दी गई है। हमें केस कर स्टे लेना पड़ा है।

भूतपूर्व सैनिकों का कहना है कि 10 वां वेतन समझौता नवंबर 2012 में हुआ था। यह समझौता अगस्त 2015 में सभी बैंकों में लागू हुआ। सभी बैंक कर्मियों को नवंबर 2012 से बढ़ा हुआ वेतन का अरियर यानी शेष राशि मिल गई है। लेकिन SBI के दिल्ली, जयपुर सर्किल के सभी भूतपूर्व सैनिक कर्मचारियों, मुंबई व कोलकाता सर्कल के भी काफी कर्मचारियों को डेढ़ से दो लाख तक की राशि का भुगतान नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक सबको पत्र लिखा।

बैंकों में दूर दराज़ के इलाकों में बिजनेस कारेस्पोंडेंट होते हैं। ये एक तरह से चलते फिरते बैंक हैं। बैंक ने इन्हें अपनी तरफ से एक उपकरण दिया था। ठीक उसी तरह का जैसे आपने पार्किंग वाले के हाथ में एक मशीन देखी होगी। अब इनका कहना है कि बैंक ने अचानक उस उपकरण को बंद कर दिया है। इन लोगों से कहा जा रहा है कि वे टैब लें। ख़ुद ख़रीदें। इस टैब की कीमत 37,000 रुपये बताई जा रही है। ये लोग कमीशन पर जीते हैं। अब किसके हित में इन पर 37,000 का टेबलेट ख़रीदने के लिए दबाव डाला जा रहा है?

बैंक मित्र और व्यक्तिगत ग्राहक सेवा के सेक्टर में भी संकट है। गांवों और कस्बों के बीच इस कमी को यही सेवा केंद्र पूरी करते हैं। पहले इन केंद्रों का हर साल नवीनीकरण हो जाता था। अब बैंक का कहना है कि वो अब नवीनीकरण नहीं करेंगे। बैंक की ही सहायक कंपनी से करार करना होगा। इन सबको एक आई डी जाती है जो ब्लाक कर दी गई है। जिससे इनकी कमाई रूकी हुई है। अपनी संख्या हज़ार में बताते हैं मगर रोते ऐसे हैं जैसे मेरी तरह अकेले हों। इस सीरीज़ से एक ज्ञान मिला है। हज़ार दस हज़ार हों या अकेले हों, आपकी कोई हैसियत नहीं है।

ग्राहक सेवा केंद्र वालों का कहना है कि व्यक्तिगत ग्राहक सेवा केंद्र पर निवेश कर चुके हैं। इसके लिए अपने पैसे से कंप्यूटर खरीदा, फर्नीचर लगाया। जिसके बदले कमीशन मिलता है। कोई भी खाता खुलता है तो बैंक इन्हें कमीशन देता है। इन केंद्रों को लेकर सब कुछ सीधा साधा भी नहीं है।

कई बार इनके यहां से भी फ्राड हो जाता है। मैनेजर भी इनके कमीशन में हिस्सेदार बन जाते हैं। इन लोगों को लिस्ट जारी कर देनी चाहिए कि किस मैनेजर को कितना दिया। क्या क्या दिया। मुझे पत्र लिख सकते हैं। क्योंकि यह बात तो बैंकर ने ही बताई है। बग़ैर नैतिक बल को प्राप्त किए आप किसी संघर्ष में विजय नहीं हो सकते हैं। झूठ को ज़ाहिर कर देने से नैतिक बल आ जाता है। नैतिक बल वन टाइम पेमेंट नहीं है। आप सच बोल बोलकर इसे हासिल करते रह सकते हैं।

राजस्थान से एक बैंक मित्र ने लिखा है कि भारत सरकार के वित्तीय समावेशन के तहत 2012 में SBBJ बैंक ने बैंक मित्र नियुक्त किए थे। अब 2017 में SBBJ और SBI का विलय हो गया। आदेश आया कि बैंक मित्र को कारपोरेट में शामिल कर दो। राजस्थान हाई कोर्ट से ये मुकदमा जीतकर आ गए और बैंक ने अपना आदेश वापस ले लिया। मगर अब बैंक ने इनकी आई डी बंद कर दी है। 6 साल से ये इंडिविजुअल बैंक मित्र का काम कर रहे हैं। दावा है कि ईमानदारीपूर्वक काम कर रहे हैं। यह पक्ष बहुत ज़रूरी है। जब आप बेईमानी में भागीदार होते तो कुछ दिन मज़ा आता है लेकिन इसी के बहाने सब ख़त्म कर दिया जाता है। बैंकों को पता होता है कि आपकी छवि ख़राब है और आपमें लड़ने की नैतिकता नहीं बची है। जनधन योजना के तहत बैंक मित्र को 5000 रुपये मानदेय और कमीशन देने का एलान हुआ था। इनका दावा है कि आज तक ये पैसा नहीं मिला। ये लोग चाहते हैं कि मैं न्याय दिलवाऊं।

नोटबंदी के दौरान सारे बैंकरों ने बिना छुट्टी के दिन रात काम किया था। तब एलान हुआ था कि इन्हें ओवरटाइम मिलेगा। बहुत से बैंकों के लोग लिख रहे हैं कि ओवरटाइम नहीं मिला है। कहीं आधा मिला है तो कहीं मिला ही नहीं है। हर तरफ परेशानी है।

इसलिए दोस्तों अब मुझे एक लोक-सचिवालय की ज़रूरत है। मुझे नहीं पता था कि मेरी पत्रकारिता का मॉडल इस स्तर पर पहुंच जाएगा। इस लोक सचिवालय को चलाने के लिए अलग अलग सेवाओं के लोग गुप्त रूप से मेरी मदद करें। वही सारी शिकायतों को प्रोसेस करें। समझाएं और फिर हम उसे फीडबैक के तौर पर सरकार और पब्लिक के सामने रखें। वर्ना सैंकड़ों मेसेज, ईमेल पढ़ना, जवाब देना मेरे बस की बात नहीं। फिर भी पढ़ तो सबका लेता हूं। अब जवाब कम दे पा रहा हूं। इसलिए आहत न हों।

इस सचिवालय की संकल्पना को साकार करने में आप सहयोग दें। चैनल के बाहर एक public secretariat कैसे बनेगा, कैसे चलेगा, कम से कम हम इस पर सोच तो सकते हैं। मुझमें न तो हर विषय को समझने की क्षमता है और न जानकारी है। क्या एक पत्रकार को अपना सचिवालय बना लेना चाहिए? जिसकी मदद से मैं अलग अलग विभागों की समीक्षा कर सकूंगा। जहां सरकारी संस्थानों के लोग गुप्त पत्र भेज कर सिस्टम का भेद बाहर कर दें। आप फाइल नंबर न भी बताएं मगर आपकी तकलीफ को पढ़ते पढ़ते मैं सिस्टम के भीतर की क्रूरता और ठगी तो देख ही लेता हूं। बैंक के बाद बड़े पैमाने पर रेलवे की भीतर से समीक्षा करने जा रहा हूं। यह सब तभी संभव है जब मेरा अपना एक लोक सचिवालय हो।

अब मैं यह सुन सुन कर तंग आ गया हूं कि कोई मुझे छोड़ेगा नहीं, मेरी नौकरी चली जाएगी तो किसी ने कंपनी ख़रीद ली, अब क्या करूंगा। कई लोग मज़े लेने के लिए ऐसे मेसेज भेज देते हैं। कैसा समाज है यह। किसी की नौकरी जाने की आशंका पर कोई ख़ुश भी हो सकता है? आपने कैसे बर्दाश्त कर लिया कि सवाल पूछने पर किसी संपादक की नौकरी चली जाती है। जब आप दूसरों के लिए बर्दाश्त करेंगे तो भाई अपने लिए भी नाइंसाफी सहनी पड़ेगी न। फिर भी जब तक नौकरी है तब तक आपके लिए हूं। यह कहने का मतलब ये न समझें कि हर समस्या के लिए मैं ही हूं, मैं ही उठा सकता हूं, अपनी क्षमता के हिसाब से ज़्यादा ही उठाया है। बहुतों का नहीं उठा सका फिर भी आप देखिए उसमें उनकी भी बात है जिनकी बात नहीं उठा सका।

मेरी नौकरी नहीं होगी तो नहीं होगी। आप बस ब्राडबैंड का ख़र्चा भेज देना। फेसबुक पर पोस्ट लिखकर ही हुज़ूर लोगों की हालत ख़राब कर दूंगा। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मेरी वाहवाही न करें बल्कि आप भी अपने डर से आज़ाद हो जाएं। बैंकों में भयंकर शोषण का चक्र चल रहा है। उस पहिए को तोड़ दीजिए। जब देश आज़ाद हो सकता है तो ग़ुलाम बैंकर क्यों नहीं आज़ाद हो सकते हैं? नौकरी तो हमारी भी जा सकती है पर हम बोल रहे हैं न। 

Post a Comment

Previous Post Next Post