कवरेज इण्डिया न्यूज डेस्क।
बहुत पहले दोस्तों के बीच किसी वार्तालाप के दौरान मैंने एक बात कही थी. जो कि बाद में एक फेसबुक पोस्ट भी बन गई थी.
“धर्म तब तक ही सुसह्य है जब तक वो निजी है. उसके सार्वजनिक हो जाने पर ये सिवाय परेशानियां खड़ी करने के और कुछ नहीं करता.”
उस वक़्त तो ये बात एक कैजुअल चिंता भर थी. हर बीतते दिन के साथ ये एहसास होता गया कि ये शाश्वत सत्य टाइप बात निकल आई है. आज जो धर्म के नाम पर सर्कस जारी है तमाम दुनिया में, वो इस बात को सर्टिफाई करने के लिए काफी है. ये सब अचानक क्यों याद आ रहा आज? बताते हैं.
हमारे एक साथी हैं मुहम्मद असग़र. उन्होंने देखा कि जुमे की नमाज़ सड़क पर पढ़ते लोग बाकी जनता के लिए परेशानी का बायस बन रहे हैं. उन्हें अजीब लगा. ग़लत भी. उन्होंने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी जिसमें बेहद संजीदा और शालीन लहजे में अपनी नाइत्तेफाकी ज़ाहिर की. सड़क पर नमाज़ से लोगों को होने वाली दिक्कतों पर चिंता जताई.
अपनी बात को अल्लाह के फरमान के हवाले से समझाया कि किसी को तकलीफ़ देकर की गई इबादत काबिले-कबूल नहीं हो सकती. ज़ाहिर है मज़हब की विसंगतियों की तरफ इशारा करने वाले हर एक शख्स के हिस्से जो आता है, वो उनको भी मिला. आलोचना. तीखी, पर्सनल होती आलोचना.
किसी ने पोस्ट को घृणित बताया, किसी ने घटिया. किसी ने लिखने वाले को पब्लिसिटी का तलबगार बोल दिया. किसी ने उनके शिया होने पर सवाल उठाए, तो किसी ने कहा कि हिंदुस्तान में मुसलमान होने की मजबूरी ऐसा लिखवा रही है. जिस एक ज़रूरी मुद्दे पर बात होनी चाहिए थी, उसका रायता बन गया.
धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन हर हाल में रुकना चाहिए. ये बात इतनी सिंपल है कि इसका विरोध समझ से बाहर है. मस्जिद के बाहर नमाज़ पढ़ती भीड़ हो या सड़क पर होता जगराता. ऐसा कोई भी उत्सव या प्रथा जो जनता के दैनंदिन जीवन में मुश्किलें खड़ी करती हो, उसके औचित्य पर सवाल उठने ही चाहिए. असग़र वही सब कर रहे थे. ट्रोल हो गए. जबकि वो अपनी बात भी मज़हब के हवाले से रख रहे थे. उन्होंने याद दिलाया कि किसी को तकलीफ़ देकर की गई इबादत को अल्लाह मंज़ूर नहीं करेगा.
ये तर्क फ़िज़ूल है कि जब इबादतगाहें मौजूद नहीं है तो लोग सड़कों पर ही पढ़ेंगे. या ये कि सरकारें मस्जिद बना दें. ये सरकार का काम नहीं है. मज़हब निजी मामला है. आप अपने लिए, अपने पैसे से, अपनी ज़मीन पर बना लीजिए जितनी चाहे मस्जिदें. सरकार क्यों बनाएं? कई मस्जिदें जगह की कमी का अपने तौर पर हल भी निकालती हैं. वहां जमात की नमाज़ें दो बार करवाई जाती हैं ताकि नमाज़ियों के सड़क पर खड़े होने की नौबत न आए. ये तरीका अनिवार्य क्यों नहीं किया जाता? नीयत दुरुस्त हो तो हल भी निकल ही आता है. सुधार की हर बात, निकाली गई हर कमी मज़हब पर हमला नहीं होती. कई बार ये जेन्युइन फ़िक्र भी होती है. जैसे कि असग़र की थी. जड़ता किसी भी मज़हब के लिए घातक है. थोड़ा से बदलाव से कोई आफत नहीं आ जाती.
इस सारे मामले में राहत की बात ये रही कि कई सारे मुस्लिम असग़र के समर्थन में भी दिखाई दिए. अगर एक तरफ उन्हें चीप पब्लिसिटी का भूखा बता रहे मुस्लिम थे, तो वहीं ऐसे मुस्लिम भी थे जो संजीदगी से इस प्रैक्टिस की मजम्मत कर रहे थे. ऐसे लोग ही इस्लाम की मदद करेंगे. इस्लाम को अगर कुछ चाहिए तो इफरात में ऐसे लोग, जो आलोचना को तर्क की कसौटी पर परखना जानते हो.
औरों को परेशानी में डालकर की गई इबादत किसी हाल में इबादत नहीं कहलाएगी. ऐसी इबादत की ज़रूरत भी नहीं है, जिसमें महज़ अपने सवाब की फ़िक्र हो और दुनिया जाए भाड़ में जैसी बदनीयती. ऐसी इबादत और कुछ नहीं महज़ जिस्मानी वर्जिश होकर रह जाएगी. इसे समझा न गया तो उस नामालूम शायर का ये शेर हमेशा मौजूं ही रहेगा…
“ख़ौफ़-ए-दोज़ख़ से कभी ख़्वाहिश-ए-जन्नत से कभी
मुझ को इस तर्ज़-ए-इबादत पे हंसी आती है”
साभार: The Lallantop





