नज़र आता है डर ही डर, तेरे घर-बार में अम्मा,
नहीं रहना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा।
जहां ना लाज है, है ना शरम, इंसान में अम्मा,
हैं रोटी सेंकते मृत्यू पे भी, इस बाजार में अम्मा।
नज़र आता है डर ही डर, तेरे घर-बार में अम्मा,
नहीं रहना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा...
किया था क्या ? करेंगे क्या ? नहीं आशा मेरी अम्मा,
ये झुठला देते हैं मृत्यू को भी, भरे बाजार में अम्मा।
नज़र आता है डर ही डर, तेरे घर-बार में अम्मा,
नहीं रहना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा...
मैं भूखा था, लगी थी प्यास, थी जीने की आस हे अम्मा,
न सोचा था ये दुनियां छीन लेगी सांस हे अम्मा।
नज़र आता है डर ही डर, तेरे घर-बार में अम्मा,
नहीं रहना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा...
खता थी क्या मेरी ? थी क्या शिकायत ? बस तु लेना पूछ हे अम्मा,
मेरे जीवन से बढ़कर पैसे की, थी क्या औकात हे अम्मा ?
नज़र आता है डर ही डर, तेरे घर-बार में अम्मा,
नहीं रहना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा...
मंगला प्रसाद तिवारी
(कवि, लेखक, समाजसेवी)
इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश की फेसबुक वाले से।
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