स्मार्ट फोन के दम पर पत्रकारिता तीसरी आजादी की ओर तेजी से बढ़ रही है हालांकि यह बदलाव प्रिंट मीडिया के लिए परेशानी का कारण जरूर है लेकिन तकनीकें बदलती है तो तकदीरें भी बदलती ही हैं.
कभी अखबार ट्रेडल पर छपा करते थे, फिर सिलेंडर आफसेट मशीन पर आ गए तो ब्लैक एंड व्हाईट, फोटो ब्लॉक से सेपरेट कलर से लेकर मिक्स कलर तक का सफर ऐसे ही तय नही किया है. प्रिंट मीडिया में इन बदलावों के दौरान भी कई बेरोजगार हुए तो कइयों का कैरियर खत्म हो गया. जब कंप्यूटर युग शुरू हुआ तो कई वरिष्ठ पत्रकार, पत्रकारिता की मुख्यधारा से ही अलग हो गए.
अब तकनीक फिर करवट ले रही है. यह अच्छे पत्रकारों के लिए यकीनन एक सुखद बदलाव है. क्योंकि यह पत्रकारिता को तीसरी आजादी की ओर ले जा रही है. बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पत्रकारिता का उदय हुआ तथा आजादी से पहले और बाद में कई अखबार निकले जो कॉर्पोरेट आधार पर नहीं, कलम के आधार पर जाने-पहचाने जाते थे. आजादी से पहले इन अखबारों ने बड़ा संघर्ष किया क्योंकि अंग्रेजों ने कई नियम लाद रखे थे, दुर्भाग्य से आज भी प्रेस एक्ट उसी जमाने के नियमों की सजावटी फोटोकॉपी है.
उस युग की तस्वीर की कल्पना केवल इससे की जा सकती है कि आजाद बांसवाड़ा के पहले प्रधानमंत्री प्रसिद्ध पत्रकार भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी को अखबार पढ़ने के जुर्म में सजा दी गई थी. देश आजाद हुआ तो पत्रकारिता को पहली आजादी मिली. आजादी के बाद के तीन दशक पत्रकारिता का स्वर्णयुग था.
लेकिन इसके बाद सातवें दशक में आपातकाल ने एक बार फिर पत्रकारिता को गुलाम बना लिया. अखबारों की स्थिति सरकारी प्रेसनोट जैसी हो गई लेकिन समय बदला और पत्रकारिता को दूसरी आजादी मिली. इंडियन एक्सप्रेस, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स जैसे अखबारों ने एक बार फिर कलम की ताकत दुनिया को दिखाई लेकिन आठवें दशक के बाद जाने-अनजाने पत्रकारिता फिर कमजोर पडने लगी. एक ओर जहां सरकारी लाभ के घोषित/अघोषित नियमों ने अच्छे-अच्छे अखबारों को फाइल कॉपी तक पहुंचा दिया वहीं बाजार के दबाव में बड़े-बड़े अखबार सजावटी होते चले गए. कलम की ताकत से पहचाने जानेवाले पत्रकार की पहचान बड़ी कार हो गई.
इस दौरान इलैक्ट्रॉनिक मीडिया भी आया लेकिन उसके भी भारी भरकम खर्चे बाजार पर ही निर्भर रहे इसलिए वहां भी पत्रकारिता सजावटी ही बनी रही. कभी कलम पत्रकारों की तलवार होती थी लेकिन नई एक्कीसवीं सदी में तलवार की जगह म्यांन थमा दी गई. चाहे जितना लड़ो, चाहे जितना लिखो. नुकसान कुछ नहीं होना है, नतीजा कुछ नहीं निकलना है. लेकिन अब स्मार्ट फोन और इंटरनेट की बढ़ती ताकत पत्रकारिता को तेजी से तीसरी आजादी की ओर ले जा रही है. इस बीच कई सवाल खड़े हो गए हैं कि इसका व्यावसायिक ढांचा क्या है? फायदा क्या है? यकीनन प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के करोड़ों की कमाई के मुकाबले इसकी कुछ भी कमाई नहीं है लेकिन सवाल यह है कि पत्रकारिता व्यवसाय कब थी? इसे तो व्यवसाय बना दिया गया है.
हां, जहां तक इसकी ताकत की बात है तो आनेवाला समय दिखाएगा कि अच्छे पत्रकारों की कलम में फिर जान आ रही है. पत्रकारिता का स्वर्णयुग लौट रहा है.
लेखक-
मंगला प्रसाद तिवारी
(इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश)
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